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पगडंडी

साहब अली

पगडंडी

साहब अली

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    हरे-पीले घास के मैदान से टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता बनाती वो एक छोटी सी पगडंडी थी।

    आस-पास उगी हुई फूलों की झाड़ियों और हरी-हरी बेलों से वो क़रीब-क़रीब ढक गई थी। परली तरफ़ थोड़े ही फ़ासले से एक बड़ी सड़क गुज़रती थी। उस रास्ते पर हमेशा लोगों का आना-जाना लगा रहता। हमेशा गाड़ियाँ आतीं-जातीं और मोटरें दौड़तीं। लोग बन-सँवर कर इधर-उधर फिरते। राजा की सवारी भी बाजे-गाजे के साथ उसी सड़क से गुज़रती।

    बे-चारी ग़रीब पगडंडी... उसकी तरफ़ भूले से भी कोई नहीं देखता था। उसका इसे बड़ा दुख था और वो मन ही मन में सोचा करती, ग़रीब को इस दुनिया में कौन पूछेगा? जिसे देखो वो बड़े ही को इज़्ज़त देता है।

    एक दिन शाम के वक़्त मोटर की आवाज़ से घबरा कर कुछ बकरी के बच्चे इस पगडंडी पर गए। सड़क की भीड़ से बचने के लिए एक औरत भी अपने दो छोटे बच्चों को लेकर उसी पगडंडी पर गई।

    पगडंडी एक दम पुर सुकून थी। उस पर मोटरें नहीं थीं, गाड़ियाँ नहीं थीं, धूल नहीं थी, कुछ भी नहीं था। “दूर हटो!” कह कर चिल्लाने वाला भी कोई नहीं था।

    रास्ते पर उगी हुई घास खाते-खाते बकरी के बच्चे ख़ुशी से इधर-उधर कूदने लगे। क़रीब ही उगे हुए फूलों को देख कर बच्चे भी नाचने लगे। उसमें से कुछ फूल तोड़ कर उन्होंने हार भी गूँधे। पगडंडी को बड़ा सुकून मिला। वो दिल ही दिल में कहने लगी, “अगर रोज़ाना इस तरह प्यारे बकरोटे और ख़ुश-दिल बच्चे मेरे साथ खेलने आएँ तो मुझे इस सड़क के ताम-झाम से क्या लेना देना?”

    रोज़ाना बकरी के बच्चे वहाँ आते और इधर-उधर फिरते, बच्चे भी फूल जमा करने आते, नाचते-खेलते और वापस चले जाते। उस तरफ़ सड़क पर लोगों का शोर-ओ-गुल मचता रहता। मोटरें दौड़तीं और धूल रहती।

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