हयात लखनवी
ग़ज़ल 11
नज़्म 2
अशआर 8
अब दिलों में कोई गुंजाइश नहीं मिलती 'हयात'
बस किताबों में लिक्खा हर्फ़-ए-वफ़ा रह जाएगा
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चेहरे को तेरे देख के ख़ामोश हो गया
ऐसा नहीं सवाल तिरा ला-जवाब था
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मुद्दआ हम अपना काग़ज़ पर रक़म कर जाएँगे
वक़्त के हाथों में अपना फ़ैस्ला रह जाएगा
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सिलसिला ख़्वाबों का सब यूँही धरा रह जाएगा
एक दिन बिस्तर पे कोई जागता रह जाएगा
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हर सदा से बच के वो एहसास-ए-तन्हाई में है
अपने ही दीवार-ओ-दर में गूँजता रह जाएगा
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पुस्तकें 6
चित्र शायरी 1
वहम-ओ-गुमाँ में भी कहाँ ये इंक़िलाब था जो कुछ भी आज तक नज़र आया वो ख़्वाब था पा-ए-मुराद पा के वो बेहाल हो गया मंज़िल बहुत हसीन थी रस्ता ख़राब था चेहरे को तेरे देख के ख़ामोश हो गया ऐसा नहीं सवाल तिरा ला-जवाब था उस के परों में क़ुव्वत परवाज़ थी मगर उन मौसमों का अपना भी कोई हिसाब था आँखों में ज़िंदगी की तरह आ बसा है वो मेरी नज़र में पहले जो मंज़र ख़राब था जैसे हवा का झोंका था आ कर गुज़र गया वो शख़्स इस के बा'द कहाँ दस्तियाब था सारा कलाम उस से मुअ'नवन हुआ 'हयात' जिस का वजूद ख़ुद भी मुकम्मल किताब था