ख़्वाज़ा रज़ी हैदर
ग़ज़ल 15
अशआर 5
आईने में और आब-ए-रवाँ में था तिरा अक्स
शायद कि मिरा दीदा-ए-तर तेरी तरफ़ था
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गुज़री जो रहगुज़र में उसे दरगुज़र किया
और फिर ये तज़्किरा कभी जा कर न घर किया
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नहीं एहसास तुम को राएगानी का हमारी
सुहुलत से तुम्हें शायद मयस्सर हो गए हैं
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मैं ने पूछा कि कोई दिल-ज़दगाँ की है मिसाल
किस तवक़्क़ुफ़ से कहा उस ने कि हाँ तुम और मैं
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