मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
ग़ज़ल 51
नज़्म 37
अशआर 33
अब तक तो ख़ुद-कुशी का इरादा नहीं किया
मिलता है क्यूँ नदी के किनारे मुझे कोई
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बचपन में आकाश को छूता सा लगता था
इस पीपल की शाख़ें अब कितनी नीची हैं
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रोती हुई एक भीड़ मिरे गिर्द खड़ी थी
शायद ये तमाशा मिरे हँसने के लिए था
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सुना ऐ दोस्तो तुम ने कि शायर हैं 'मुज़फ़्फ़र' भी
ब-ज़ाहिर आदमी कितने भले मालूम होते हैं
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