साक़ी अमरोहवी के शेर
कितने ही ग़म निखरने लगते हैं
एक लम्हे की शादमानी से
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में अब तक दिन के हंगामों में गुम था
मगर अब शाम होती जा रही है
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ख़्वाब था या शबाब था मेरा
दो सवालों का इक जवाब हूँ मैं
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दर-ब-दर होने से पहले कभी सोचा भी न था
घर मुझे रास न आया तो किधर जाऊँगा
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ज़िंदगी भर मुझे इस बात की हसरत ही रही
दिन गुज़ारूँ तो कोई रात सुहानी आए
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मदरसा मेरा मेरी ज़ात में है
ख़ुद मोअल्लिम हूँ ख़ुद किताब हूँ मैं
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टैग : उस्ताद
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तू नहीं तो तिरा ख़याल सही
कोई तो हम-ख़याल है मेरा
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मुझ को क्या क्या न दुख मिले 'साक़ी'
मेरे अपनों की मेहरबानी से
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