सय्यद काशिफ़ रज़ा
ग़ज़ल 33
नज़्म 16
अशआर 5
इस क़दर ग़ौर से देखा है सरापा उस का
याद आता ही नहीं अब मुझे चेहरा उस का
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उस पे बस ऐसे ही घबराई हुई फिरती थी
आँख से हुस्न सिमटता ही नहीं था उस का
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कभी कभी मुझे लगता है वो नहीं है वो
मगर कभी कभी लगता है वो वही तो नहीं
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मैं अपने-आप से कम भी हूँ और ज़ियादा भी
वो जानता भी है मुझ को तो जानता क्या है
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वो जो मक़ाम है तेरा मिरी कहानी में
उसी मक़ाम पे मैं तेरे तज़्किरे में रहूँ
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