ताबिश देहलवी के शेर
ज़र्रे में गुम हज़ार सहरा
क़तरे में मुहीत लाख क़ुल्ज़ुम
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अभी हैं क़ुर्ब के कुछ और मरहले बाक़ी
कि तुझ को पा के हमें फिर तिरी तमन्ना है
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शाहों की बंदगी में सर भी नहीं झुकाया
तेरे लिए सरापा आदाब हो गए हम
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टैग : बंदगी
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छोटी पड़ती है अना की चादर
पाँव ढकता हूँ तो सर खुलता है
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