ढल गया जिस्म में आईने में पत्थर में कभी
ढल गया जिस्म में आईने में पत्थर में कभी
छुप सका मैं न किसी रंग के पैकर में कभी
मैं यही नुक़्ता-ए-मौहूम रहूँगा न सदा
मैं झलक उठ्ठूँगा आख़िर किसी मंज़र में कभी
वो समुंदर की बड़ाई से है मरऊब कि वो
तिश्ना-लब बन के रहा है न समुंदर में कभी
तुझ पे खुल जाएँगे ख़ुद अपने भी असरार कई
तू ज़रा मुझ को भी रख अपने बराबर में कभी
देखते हैं दर-ओ-दीवार हरीफ़ाना मुझे
इतना बे-बस भी कहाँ होगा कोई घर में कभी
अस्ल में कुछ भी न था चंद लकीरों के सिवा
हम भी रखते थे यक़ीं हर्फ़-ए-मुक़द्दर में कभी
उस से क्या पूछते हम अपने मआनी 'मंज़ूर'
फूल खिलते नहीं देखे किसी बंजर में कभी
- पुस्तक : Natamam (पृष्ठ 49)
- रचनाकार : Hakeem Manzoor
- प्रकाशन : Samt Publication 2/48 Rajendar Nagar New Delhi-110060 (1977)
- संस्करण : 1977
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