जहाँ ख़ुद-ग़र्ज़ियाँ हों वो नगर अच्छा नहीं लगता
रोचक तथ्य
'तख़लीक़' मासिक, लाहौर अगस्त 2008
जहाँ ख़ुद-ग़र्ज़ियाँ हों वो नगर अच्छा नहीं लगता
कि जिस में भाई लड़ते हूँ वो घर अच्छा नहीं लगता
वो दस्तार-ए-अना पहने क़बीले का सितारा है
अमीर-ए-शहर को लेकिन वो सर अच्छा नहीं लगता
जो वालिद का बुढ़ापे में सहारा बन नहीं सकता
जो सच पूछो तो हो लख़्त-ए-जिगर अच्छा नहीं लगता
मुझे तो प्यार है उन से जो काम आते हैं औरों के
फ़क़त दौलत कमाने का हुनर अच्छा नहीं लगता
चमन को रौंदने वाले को रहबर किस तरह मानूँ
वो ख़ुद अच्छा बने मुझ को मगर अच्छा नहीं लगता
मुझे तो प्यार वाली अपनी कुटिया अच्छी लगती है
जो ऐवाँ नफ़रतें दे उस का दर अच्छा नहीं लगता
जो बच्चे भूल कर रंगीनियों में ग़र्क़ हो जाए
ख़ुदा शाहिद है मुझ को वो पिदर अच्छा नहीं लगता
हदफ़ हो सामने 'अनवार' तो चलते ही रहते हैं
सराबों का हम को सफ़र अच्छा नहीं लगता
- पुस्तक : Alami Urdu Adab, Jild 27 (पृष्ठ 148(e) 149 )
- रचनाकार : Nand Kishor Vikram
- प्रकाशन : Publishers and Advertisers, Krishn Nagar, Delhi, (October 2008)
- संस्करण : October 2008
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