सँभलने दे मुझे ऐ ना-उमीदी क्या क़यामत है
सँभलने दे मुझे ऐ ना-उमीदी क्या क़यामत है
कि दामान-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाए है मुझ से
व्याख्या
ग़ालिब के अशआर के मायने की तहों तक पहुंचना ऐसा ही है जैसे दरिया से मोती निकालना। बल्कि किसी भी शे’र की व्याख्या करना ऐसा ही काम है जैसे किसी फूल की पंखुड़ियों को बिखेर दिया जाये। मगर फिर भी समझने और समझाने के लिए ज़रूरी है कि अशआर को उनके मतलब के साथ खोल कर बयान किया जाये, जिससे कि सुनने वाले को उसके मतलब तक पहुंचना और आसान हो जाये।
ग़ालिब के इस शे’र की बात की जाये तो पहले कुछ अलफ़ाज़ के अर्थ और आशय पर बहस बहुत ज़रूरी है। पहला लफ़्ज़ जो इस शे’र में इस्तेमाल हुआ है वो 'ना-उमीदी’ है जो उम्मीद का विलोम है। जिसका अर्थ निराशा, मायूसी है और दूसरा लफ़्ज़ 'क़ियामत’ है जिसका इस शे’र के अनुसार मुहावराती मतलब अशान्ति, मुसीबत, आफ़त है। इसके अलावा 'दामान-ए-ख़्याल-ए-यार’ का मतलब देखें तो समझ आएगा कि महबूब के ख़्याल का दामन या अपने प्रिय की कल्पनाओं का सिरा है।
सबसे पहले तो ये बात ज़ेहन में रखनी चाहिए कि किसी शे’र में दो पहलू होते हैं। पहला उस के शब्दों का क्रम और उसकी क्रा़फ्ट है और दूसरा उसके मायने की गहराई जो शे’र का अंदरूनी हुस्न है। या यूं कहिए कि जो शे’र की असल बुनियाद है। मायने वो हैं कि जिनकी तहें बहुत गहरी हैं बहुत अंदर तक पहुंची हुई हैं जिनको पूरी तरह समझना तो बहुत मुश्किल है, मगर ये कि अगर समझने की कोशिश की जाये तो परत दर परत बहुत सी संभावनाएं सामने आती चली जाती हैं। इस शे’र में शायर अपने दिल पर ना-उम्मीदी और नाकामी के सायों के पड़ने की वजह से इतना परेशान है कि उसके हाथ से अपने महबूब की याद के सिरे भी निकले जाते हैं। ग़ालिब किसी बात को सीधे और आसान लफ़्ज़ों में कहने के आदी नहीं हैं। सीधी साधी बात को भी सांसारिक बना देते हैं और इतने व्यापक अर्थ खुलते हुए नज़र आते हैं कि जिसको देखकर हैरान हो जाना स्वाभाविक है।
यहाँ ग़ालिब ख़ुद को उम्मीद और उससे इतना ख़ाली पाते हैं कि ना-उम्मीद हो जाते हैं और इसी ना-उम्मीदी को आदर्श रूप में पेश करते हुए कहते हैं कि ऐ ना-उम्मीदी ज़रा मुझे संभलने तो दे, मुझे दम लेने तो दे, मुझको सोचने समझने तो दे, मुझ पर एक के बाद एक निराशा की बौछार न होने दे, क्योंकि ये मायूसी और ना-उम्मीदी एक तरह से मुझे हर तरह की दुनियावी मुसीबतों में घेरे रखती है, वहीं दूसरी तरफ़ मैं अपने महबूब की याद और उसकी कल्पना से भी दूर हो जाता हूँ। ग़ालिब ने दामान-ए- ख़्याल-ए-यार” का इस्तेमाल कर के इस आम सी भावना को भी बहुत ख़ास बना दिया है और आम से आशय को बहुत गहराई अता कर दी है।
ग़ालिब के कहने का मतलब ये है कि एक के बाद एक दुख-दर्द परेशानी और मुसीबत, आफ़त और बेचैनी ऐसी है कि जो ज़िंदगी को घेरे हुए है और उन्हीं परेशानियों और मुसीबतों ने उसकी ज़िंदगी से उसको छीन कर मायूसी में बदल दिया है। शे’र की परतों को खोलें तो देखेंगे कि इस शे’र में जिस हुस्न और ख़ूबसूरती से इस दर्द को बयान किया गया है उसने उसके बयान को नई दिशा और नया रंग प्रदान कर दिया है। ज़ाहिर है कि दुनियावी मामलों और मुद्दों की ज़्यादती हमेशा ही दिल के मामलों पर भारी हो जाती है और यही ग़ालिब के साथ भी हुआ जिसको वो इस शे’र में बयान करते हैं। एक और जगह ग़ालिब इसी तरह बयान करते हैं कि;
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
यानी सारी उम्मीदें ख़त्म हो चुकी हैं आगे अंधेरा ही अंधेरा है, काला ही काला है, ग़म ही ग़म है, परेशानी ही परेशानी है।
सुहैल आज़ाद
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