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तिरे नाज़-ओ-अदा को तेरे दीवाने समझते हैं

ज़की काकोरवी

तिरे नाज़-ओ-अदा को तेरे दीवाने समझते हैं

ज़की काकोरवी

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    तिरे नाज़-ओ-अदा को तेरे दीवाने समझते हैं

    हक़ीक़त शम्अ' की क्या है ये परवाने समझते हैं

    मुकम्मल वारदातें हैं मिरे गुज़रे ज़माने की

    हक़ाएक़ से जो ना-वाक़िफ़ हैं अफ़्साने समझते हैं

    जुनूँ के कैफ़-ओ-कम से आगही तुझ को नहीं नासेह

    गुज़रती है जो दीवानों पे दीवाने समझते हैं

    तिरी मख़मूर आँखों को कोई कुछ भी कहे लेकिन

    हम उन को साक़ी-ए-दौराँ के पैमाने समझते हैं

    रास आएँगी मुझ को जहाँ आबादियाँ तेरी

    मिरे दिल की लगी को तेरे वीराने समझते हैं

    कुछ अहल-ए-जुनूँ समझे कुछ अहल-ए-ख़िरद समझे

    रुमूज़-ए-ज़िंदगी कुछ फिर भी मस्ताने समझते हैं

    'ज़की' अपनों ने तो हम को हमेशा ही सताया है

    हक़ीक़त कुछ हमारी फिर भी बे-गाने समझते हैं

    स्रोत :
    • Saaz-e-dil

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