aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
جدید مرثیہ نگاری کے عہد میں جمیل مظہری کا نام امتیازی اہمیت کا حامل ہے۔ انہوں نے عہد طفلی میں ہی شاعری کا آغاز کیا اور اس ماحول میں پرورش پائی جہاں مجالسِ عزا کا اہتمام ہوتا تھا۔ جمیل مظہری نے اپنی کم عمری کے باوجود معرکتہ الآراء مرثیے نظم کرکے اپنی ایک منفرد شناخت قائم کی۔ انکاپہلا مرثیہ عرفان ِعشق(۱۹۳۰ء )جو فکر ی لحاظ سے انقلاب انگیز ہے۔ اسکے علاوہ پیمانِ وفا (۱۹۳۶) عزم محکم(۱۹۴۲ء )مضراب شہادت(۱۹۵۱ء )افسانہ ہستی(۱۹۵۷)شامِ غریباں (۱۹۶۳ء) جیسے شاہکار مرثیے نظم کرکے اپنے تبحرِ علمی ، وجدانی کیفیات اورتجربے کی ضو میں واقعات ِکربلا کا جائزہ لے کر اسے مذہب اور خالص فرقہ وارانہ نقطہ نظر سے بلند کیا۔ ان کا دور جوش ملیح آبادی اور نجم آفندی والا ہے ، ان مشہور و معروف مرثیہ نگاروں کی وجہ سے ہی مظہری کو وہ شہرت نہیں مل سکی جس کے وہ مستحق تھے۔ مگر معیاری مرثیہ نگاروں میں ان کا نام شامل ہے۔ زیر نظر کتاب میں جمیل مظہری کے دس اقسام کی مراثی کو شامل کیا ہے اور ہر قسم کے ساتھ ایک باب قائم کیا ہے اور اس باب کے ساتھ ہی یہ بھی بتا دیا ہے کہ یہ کب اور کس سال میں کہا گیا مرثیہ ہے۔ ہر باب کے شروع ہونے سے پہلے یہ بتا دیا ہے کہ اس عنوان کے تحت کتنے بند ہیں اور کس واقعہ کے غم میں یہ مرثیہ کہا جا رہا ہے ۔ ۱۹۴۱ کی کچھ یادگار تصویریں بھی دی گئی ہیں ۔ٹائیٹل پیج لال رنگوں سے نہایا ہوا ہے جو کہیں نہ کہیں کسی کے ناحق خون کا اشارہ دیتا ہے۔
सय्यद काज़िम अली नाम, जमील मज़हरी के नाम से शोहरत पाई। सन्1904 में पटना में पैदा हुए। उनके एक बुज़ुर्ग सय्यद मज़हर हसन अच्छे शायर हुए हैं। उनसे ख़ानदानी ताल्लुक़ पर सय्यद काज़िम अली को फ़ख़्र था। इसलिए जमील तख़ल्लुस इख़्तियार करने के साथ ही उस पर मज़हरी का इज़ाफ़ा किया। आरंभिक शिक्षा मोतिहारी और मुज़फ़्फ़रपुर में हासिल की। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता चले गए। कलकत्ता में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, आग़ा हश्र, नसीर हुसैन ख़्याल और अल्लामा रज़ा अली वहशत जैसी हस्तीयों से लाभान्वित होने का मौक़ा मिला।
जमील मज़हरी ने 1931ई. में कलकत्ता यूनीवर्सिटी से एम.ए की डिग्री हासिल की। शिक्षा के दौरान ही शे’र कहना आरम्भ कर चुके थे। वहशत से त्रुटियाँ ठीक कराते थे। उस्ताद को अपने शागिर्द की सलाहियत का ज्ञान था। जल्द ही उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि अब सुधार की ज़रूरत नहीं। शिक्षा समाप्त करने के बाद जमील मज़हरी ने पत्रकारिता के क्षेत्र में क़दम रखा। यह क्रम लगभग छः साल जारी रहा। इस दौरान उन्हें बहुत कुछ लिखने का मौक़ा मिला और क़लम में प्रवाह आया। इस तरह गद्य लेखन का शौक़ हुआ। राजनीतिक निबंध, विद्वत्तापूर्ण आलेख, उपन्यास और कहानियां ग़रज़ उन्होंने बहुत कुछ लिखा। “फ़र्ज़ की क़ुर्बानगाह पर” एक उपन्यास लिखा जो बहुत लोकप्रिय हुआ।
पत्रकारिता जीवन ने व्यावहारिक राजनीति का मार्ग प्रशस्त किया और 1937 में बिहार की कांग्रेस सरकार में पब्लिसिटी अफ़सर नियुक्त हो गए। सन्1942 में जब कांग्रेस सरकार ने इस्तीफ़ा दिया तो जमील मज़हरी भी पब्लिसिटी अफ़सर की ज़िम्मेदारी से अलग हो गए। आख़िरकार उन्होंने व्यावहारिक राजनीति के अभिशाप से किनारा कर लिया और पटना यूनीवर्सिटी में उर्दू के उस्ताद का पद स्वीकार कर लिया। सन्1964 में वो नौकरी से सेवानिवृत हो कर उर्दू शे’र-ओ-अदब की ख़िदमत के लिए समर्पित हो गए। ग़ज़लों का संग्रह “फ़िक्र-ए-जमील” और नज़्मों का संग्रह “नक़्श-ए-जमील” के नाम से प्रकाशित हुआ।
अल्लामा जमील मज़हरी ने नस्र की तरफ़ भी तवज्जा की और बहुत कुछ लिखा लेकिन उनका असल कारनामा शायरी है। अपने प्राचीन काव्य धरोहर का उन्होंने बहुत ध्यानपूर्वक अध्ययन किया है और अपनी क्लासिकी परम्परा से प्रभावित हुए हैं, इसलिए उनकी शायरी विषयवस्तु और शैली दोनों एतबार से प्राचीन और आधुनिक का संगम है। उनके कुछ शे’र यहाँ पेश किए जाते हैं;
लिखे न क्यों नक़्श पाए हिम्मत क़दम क़दम पर मिरा फ़साना
मैं वो मुसाफ़िर हूँ जिसके पीछे अदब से चलता रहा ज़माना
ये तेज़ गामों से कोई कह दे कि राह अपनी करें न खोटी
सुबुक रवी ने क़दम क़दम पर बना दिया है इक आस्ताना
ये कैसी महफ़िल है जिसमें साक़ी लहू प्यालों में बट रहा है
मुझे भी थोड़ी सी तिश्नगी दे कि तोड़ दूं ये शराबख़ाना
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