aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
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आनन्द नारायन मुल्ला हिन्दोस्तान के साझा सांस्कृतिक,सामाजिक और भाषाई संस्कृति के एक ज़िन्दा प्रतीक थे. उनका यह वाक्य कि “मैं अपना मज़हब छोड़ सकता हूँ लेकिन उर्दू को नहीं छोड़ सकता” उनके व्यक्तित्व के उसी रोशन आयाम को सामने लाता है.
मुल्ला मूल कश्मीरी थे लेकिन उनके बुज़ुर्ग पंडित कालिदास मुल्ला लखनऊ आकर बस गये थे और यहीँ पंडित जगत नारायन मुल्ला के यहाँ 26 अक्टूबर 1901 को आनन्द नारायन मुल्ला की पैदाइश हुई. मुल्ला की आरम्भिक शिक्षा फिरंगी महल लखनऊ में हुई. उनके उस्ताद बरकतुल्ला रज़ा फिरंगीमहली थे. उसकेबाद मुल्ला ने अंग्रेज़ी में एम.ए. किया और क़ानून की पढाई की और वकालत के पेशे से सम्बद्ध हो गये. 1955 में लखनऊ हाईकोर्ट के जज नियुक्त हुए .वकालत के पेशे से निवृत होकर मुल्ला ने सियासत के मैदान में क़दम रखा. 1967 में लखनऊ से आज़ाद उम्मीदवार के रूप में लोकसभा के सदस्य चुने गये. 1972 में राज्यसभा के सदस्य चुने गये. मुल्ला अंजुमन तरक्क़ी उर्दू हिन्द के सदर भी रहे.
मुल्ला ने आरम्भ में अंग्रेज़ी में शायरी की,अंग्रेज़ी अदब का छात्र होने की वजह से उ नकी नज़र अंग्रेज़ी साहित्य पर बहुत गहरी थी लेकिन वह धीरे धीरे उर्दू की तरफ़ आ गये,फिर लखनऊ के शेरी व अदबी माहौल ने भी उनकी शायराना शख्सियत को निखारने में और शिखर तक पहुँचाने में अहम भूमिका निभाई. शायरी में मुल्ला का नज़रिया बहुत साकारात्मक और सदाचारी था. इक़बाल के प्रभाव ने उसे और स्थाई किया. समाज को श्रेष्ठ बनाने के इस संघर्ष में मुल्ला अपनी शायरी, नस्र और व्यवहारिक जीवन के साथ शामिल थे. जुए शेर,कुछ ज़र्रे कुछ तारे, मेरी हदीसे उम्र गुरेज़ाँ, करबे आगही, जादहे मुल्ला. उनके काव्य संग्रह हैं. उन्होंने नेहरू के आलेखों के अनुवाद भी किये. मुल्ला को उनकी साहित्यिक और सामाजिक सेवाओं के लिए कई पुरस्कारों और सम्मानों से भी नवाज़ा गया.
12 जून 1997 को दिल्ली में मुल्ला का देहावसान हुआ.
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