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लेखक : जुरअत क़लंदर बख़्श

संपादक : इक़तिदार अहसन

प्रकाशक : अननोन आर्गेनाइजेशन

प्रकाशन वर्ष : 1970

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : कुल्लियात

पृष्ठ : 643

सहयोगी : ग़ालिब इंस्टिट्यूट, नई दिल्ली

kulliyat-e-jurat
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लेखक: परिचय


जुरअत की शायरी को मीर तक़ी मीर ने चूमा-चाटी और मुसहफ़ी ने “छिनाले की शायरी” कहा था लेकिन ये निंदनीय और अपमानजनक शब्द अगर एक तरफ़ इन दो बड़े शायरों की झुंझलाहट का पता देते हैं तो दूसरी तरफ़ जुरअत की शायरी के अंदाज़ की तरफ़ भी लतीफ़ इशारा करते हैं। जुरअत, मीर और मुसहफ़ी के होते हुए, मुशायरों में उन दोनों से ज़्यादा दाद हासिल करते थे। मीर और मुसहफ़ी अपने साथ रंज-ओ-अलम की देहलवी रिवायत साथ लाए थे जबकि लखनऊ का नक़्शा बदला हुआ था और वो लखनवी शायरी का साथ देने से असमर्थ थे। लखनऊ उस वक़्त भोग-विलास की महफ़िल बना हुआ था जहां माशूक़ की जुदाई में रोने और आहें भरने के विषय आलोचनात्मक थे। लखनऊ के लोग तो माशूक़ के नाज़-ओ-अदा से आनंदित होने, माशूक़ के जिस्म को छूने और महसूस करने के इच्छुक थे और ऐसी ही शायरी पसंद करते थे जिसमें उनकी इच्छाओं और उनकी भावनाओं का प्रतिबिम्ब हो। जुरअत उनको यही सब देते और मुशायरे लूट लेते थे। उनकी लोकप्रियता ऐसी थी कि उनका दीवान हर वक़्त नवाब आसिफ़ उद्दौला के सिरहाने रखा रहता था।

जुरअत का मारूफ़ नाम क़लंदर बख़्श, लेकिन उनका असल नाम यहिया अमान था। उनके वालिद हाफ़िज़ अमान कहलाते थे। संभवतः अमान का प्रत्यय उनके बुज़ुर्गों के नाम के साथ, बतौर ख़िताब अह्द-ए-अकबरी से चला आता था। उनके दादा के नाम पर कूचा राय अमान दिल्ली के चाँदनी चौक इलाक़े में अभी तक मौजूद है। वो मुहम्मद शाही के दौर में सरकारी ओहदेदार थे जिन्होंने नादिर शाह के लश्करियों के हाथों गिरफ़्तार हो कर बहादुरी से जान दी थी। जुरअत की सही तारीख़ पैदाइश मालूम नहीं लेकिन अनुमान है कि वो 1748 ई. में पैदा हुए। दिल्ली में जाटों की हुल्लड़ बाज़ी और फिर अबदाली के हमलों के कारण जो तबाही हुई उसने वहां के संभ्रांतो को दिल्ली छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। जुरअत का ख़ानदान भी फ़ैज़ाबाद चला गया और उनकी आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई लेकिन उनकी शिक्षा बस नाम मात्र को रही। अपने वक़्त के गुणवत्ता के मामले में वो उसे पूरा नहीं कर सके, फिर भी उनके कलाम से मालूम होता है कि फ़ारसी ज़बान और चिकित्सा विज्ञानं, छन्द व व्याकरण और कविता की कला से अच्छी तरह परिचित थे। फ़ैज़ाबाद में ही शायरी का शौक़ पैदा हुआ, वो जाफ़र अली हसरत के शागिर्द हो गए और इतनी अभ्यास और परिपक्वता साथ साथ पहुंचाई कि उस्ताद से आगे निकल गए। बक़ौल मीर हसन उनको शायरी का इतना शौक़ था कि वो हर वक़्त उसी में गुम रहते थे। आरम्भ में उन्होंने अपने उस्ताद भाई, बरेली के नवाब मुहब्बत ख़ान की संगत इख़्तियार की जिनके संरक्षण में उनका गुज़र-बसर होता था। फिर जब अवध की राजधानी लखनऊ आ गई तो वो भी लखनऊ चले आए और शहज़ादा सुलेमान शिकोह के मुलाज़िम हो गए। मुसहफ़ी और इंशा भी उनके दरबार से वाबस्ता थे। जुरअत को ज्योतिष विज्ञान से भी दिलचस्पी थी और लखनऊ के लोग उनके इस ज्ञान की सराहना करते थे। इसके इलावा उनको संगीत से भी दिलचस्पी थी, और सितार बजाने में माहिर थे। जवानी में ही उनको मोतियाबिंद की शिकायत हो गई थी, जिससे धीरे धीरे उनकी दृष्टि खो गई। उन पर ये भी इल्ज़ाम लगाया गया है कि पर्दा नशीन घरानों में बिलातकल्लुफ़ जाने के लिए वो शौक़िया अंधे बन गए थे।

जुरअत स्वभाव व चरित्र के एतबार से मरंजांमरंज, ख़ुशखुल्क़ नेकदिल और दयालु इंसान थे। ज़वा और मुसहफ़ी के साथ उनके नोक-झोंक हुए। ज़हूरुल्लाह नवा बदायूं के एक शायर थे, जो अपनी उस्तादी चमकाने लखनऊ आ गए थे। वो जुरअत के एक मिसरे “हुज़ूर बुलबुल-ए-बुस्ताँ करे नवा-संजी” पर भड़क उठे, और जुरअत की हजो कही जिसमें उन पर अशिष्ट हमले किए गए थे “कौर, बेईमां, हरामी सख़्त क़ुर्रमसाक़” है। इस पर जुरअत के शागिर्द उनके क़त्ल के दरपे हो गए थे, लेकिन मुआमला रफ़ा दफ़ा हो गया। मुसहफ़ी के मुआमले में जुरअत के एक परिचित ने, जिनको असातिज़ा का कलाम जमा करने का शौक़ था, मुसहफ़ी के तज़किरा से आसिफ़ उद्दौला  का तर्जुमा चुरा लिया था जिसे मुसहफ़ी जुरअत की साज़िश समझते थे और उनसे ख़्वाह-मख़ाह नाराज़ हो गए थे, लेकिन दोनों मुआमलों में उन्होंने कोई कीना दिल में नहीं रखा और कहा,

रंजिशें ऐसी हज़ार आपस में होती हैं दिला
वो अगर तुझसे ख़फ़ा है, तू ही जा, मिल, क्या हुआ

दृष्टि से वंचित होने के बावजूद दोस्तों से मुलाक़ात के लिए दूर दूर तक चले जाते थे। अपने मिज़ाज की वजह से ख़वास-ओ-अवाम में समान रूप से लोकप्रिय थे। उनके बेशुमार शागिर्द थे।
जुरअत में शे’र कहने की महारत स्वाभाविक थी जिसे लखनऊ के अमीरों और शिष्ट लोगों की संगतों ने और चमका दिया था। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल में अशिष्टता, मतवालापन और वासना की जीती-जागती तस्वीरें खींच कर एक अलग रंग पैदा किया। इसी आधार पर मीर उनके कलाम को ना पसंद करते थे। दूसरी तरफ़ जुरअत तर्ज़-ए-मीर के प्रशंसक थे और मीर के ही सादा बे-तकल्लुफ़ अंदाज़ पर अपनी शोख़ी का ग़ाज़ा मलते थे। ये जुरअत के माहौल और उनके अपने मिज़ाज का तक़ाज़ा था कि उनके यहां इश्क़ के बयान में कैफ़ियत की जगह वारदात ने ले ली और उन्होंने इस तरह बाहरी के रंग को ख़ास अंदाज़ से चमकाया जिसे घटना क्रम का नाम दिया जाता है। उन्होंने भावनाओं और घटनाओं की जो तस्वीरें खींची हैं उनके मनोवैज्ञानिक होने में शुबहा नहीं लेकिन ये तस्वीरें काल्पनिक नहीं बल्कि हक़ीक़त के अनुसार हैं। उन्होंने इश्क़ व आशिक़ी के मुआमलात को जिस शोख़ी, विस्तार और स्पष्टता से बयान किया वही आगे चल कर लखनऊ शायरी के स्कूल का पहचान बन गया।

जुरअत का कलाम ज़बान के एतबार से साफ़-ओ-शुस्ता है,,बंदिश चुस्त है और मुहावरे को कहीं हाथ से नहीं जाने देते। मुसलसल ग़ज़लें कहना और ग़ज़ल दर ग़ज़ल कहना उनकी एक और ख़ूबी है जिसने उनको उस्ताद का दर्जा दे दिया, वो अपने अल्प ज्ञान और कला के सिद्धांत और नियमों से अज्ञानता के बावजूद इंशा और मुसहफ़ी जैसे उस्तादों से कभी नहीं दबे। जुरअत ने एक वृहत समग्र और दो मसनवीयाँ छोड़ी हैं। समग्र में ग़ज़लें, रूबाईयात, फ़र्दियात, मुख़म्मसात, मसदसात, हफ़्त बंद, तरजीअ बंद, वासोख़्त, गीत, हजवीयात, मरसिए, सलाम, फ़ालनामे वग़ैरा सब मौजूद हैं। एक मसनवी बरसात की निंदा में है और दूसरी हुस्न-ओ-इश्क़ है जिसमें ख़्वाजा हसन और बख़्शी तवाएफ़ का क़िस्सा बयान हुआ है। उनके तीन बेटों और एक बेटी का तज़किरा मिलता है। अनगिनत शागिर्दों में शाह रऊफ़ अहमद सरहिंदी, मिर्ज़ा क़ासिम अली मशहदी, ग़ज़नफ़र अली लखनवी, चाह हुसैन हक़ीक़त और तसद्दुक़ हुसैन शौकत साहब-ए-दीवान थे। जुरअत का 1809  ई. में देहांत हुआ। 

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