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आदमी के दर्द का इस तरह दरमाँ कीजिए

इशरत अनवर

आदमी के दर्द का इस तरह दरमाँ कीजिए

इशरत अनवर

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    आदमी के दर्द का इस तरह दरमाँ कीजिए

    अस्ल ईमाँ मावरा-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कीजिए

    मेरी ख़ाकिस्तर में बाक़ी है जो बो-ए-आशियाँ

    बिजलियों का ज़िक्र क्या फ़िक्र-ए-गुलिस्ताँ कीजिए

    गर कमाल-ए-ज़ौक़-ए-गुलशन बू-ए-गुल बनने में है

    ज़र्रा ज़र्रा ख़ाक का अपनी गुलिस्ताँ कीजिए

    गर फ़रोग़-ए-ज़िंदगी ख़ुद को मिटा देने में है

    ज़ौक़-ए-ख़ुद-बीनी मिटा कर फ़िक्र-ए-इंसाँ कीजिए

    अपने अरमानों की दुनिया में तो दुनिया रह चुकी

    जिस में दुनिया ही सिमट आए वो अरमाँ कीजिए

    अपने ग़म को रोते रहना लाएक़-ए-इंसाँ नहीं

    गाहे-गाहे दूसरों के ग़म का फ़रमाँ कीजिए

    ज़ौक़-ए-तौसीअ'-ए-मोहब्बत का है आलम मुंतज़िर

    दर्द-ए-आलम ही को अपना मोनिस-ए-जाँ कीजिए

    लुत्फ़-ए-हस्ती ख़ाक-ए-मय-ख़ाना ही बन जाने में है

    ख़ुद को मिस्ल-ए-ख़ाक-ए-पाक-ए-पा-ए-रिंदाँ कीजिए

    आलम-ए-इम्काँ में हो 'अनवर' नया आलम बपा

    दूसरों के वास्ते गर ख़ुद को क़ुर्बां कीजिए

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