आह बारगह-ए-हुस्न में जल्वों का असर देख
रोचक तथ्य
सीप, कराची 1971
आह बारगह-ए-हुस्न में जल्वों का असर देख
हद से न गुज़र ज़ब्त में ऐ ज़ब्त-ए-नज़र देख
मत पूछ कि क्या गुज़री दिल-ए-शो'ला-सिफ़त पर
इस दस्त-ए-हिनाई में मिरा दामन-ए-तर देख
तू उस का तमन्नाई है मत डर दिल-ए-नादाँ
उम्मीद नहीं फिर भी वो कहता है तो मर देख
ये शहर है या ख़ेमा है दुश्मन का सिपह का
आवाज़ के ज़ख़्मों से लहू है मिरा सर देख
क्यूँ बहर-ए-ख़मोशी में है तू मिस्ल-ए-सदा तंग
हसरत कोई बाक़ी है तो इक बार उभर देख
शायद तिरे हिस्से में हो मोती का मुक़द्दर
ऐ क़तरा-ए-जाँ आज समुंदर में उतर देख
क्यूँ पाँव पसारे तू पड़ा है सर-ए-राहे
क्या सख़्त सफ़र है ज़रा साए से इधर देख
शायद हो इधर 'अर्श' कोई चश्मा-ए-हैवाँ
इक बार तू हस्ती के बयाबाँ से गुज़र देख
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