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आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला

आलमताब तिश्ना

आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला

आलमताब तिश्ना

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    आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला

    ग़ौर से देखा तो अपना ही तमाशा निकला

    ज़िंदगी महफ़िल-ए-शब की थी पस-अंदाज़-ए-शराब

    पीने बैठे तो बस इक घूँट ज़रा सा निकला

    फिर चला मौसम-ए-वहशत में सर-ए-मक़्तल-ए-इश्क़

    क़ुरआ-ए-फ़ाल मिरे नाम दोबारा निकला

    दाद-ए-शाइस्तगी-ए-ग़म की तवक़्क़ो' बे-सूद

    दिल भी कम-बख़्त तरफ़-दार उसी का निकला

    है अजब तर्ज़ का रहरव दिल-ए-शोरीदा-क़दम

    जब भी निकला सफ़र-ए-इश्क़ पे तन्हा निकला

    वो रक़ीबों का पता पूछने आए मिरे घर

    कोई तो उन से मुलाक़ात का रस्ता निकला

    दर-ब-दर ख़्वार हुए फिरते हैं हम हिज्र-नसीब

    जाँ-सिपारी का भी क्या ख़ूब नतीजा निकला

    दिल में उठते रहे यादों के बगूले 'तिश्ना'

    मुझ में सिमटा हुआ इक दर्द का सहरा निकला

    स्रोत :
    • पुस्तक : Funoon (Monthly) (पृष्ठ 291)
    • रचनाकार : Ahmad Nadeem Qasmi
    • प्रकाशन : 4 Maklood Road, Lahore (Edition Nov. Dec. 1985Issue No. 23)
    • संस्करण : Edition Nov. Dec. 1985Issue No. 23

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