आसरा हर्फ़-ए-दुआ ग़म से मफ़र होने तक
आसरा हर्फ़-ए-दुआ ग़म से मफ़र होने तक
सब्र भी चाहिए अब उस में असर होने तक
गर बक़ा की है तमन्ना तो फ़ना कर ख़ुद को
बीज सहता है सितम कितने शजर होने तक
रब की तख़्लीक़ पे अंगुश्त-ब-दंदाँ हैं मलक
मरहले देख ले मिट्टी से बशर होने तक
बख़िया-गर चाक-ए-गरेबाँ की हो तदबीर कोई
हूँ तिरी दस्त-निगर अपना हुनर होने तक
इश्क़ में बर-सर-ए-पैकार ख़िरद और जुनूँ
मर्ग बे-मौत है अब मा'रका सर होने तक
वो तिरी याद के आँसू थे जो बहने न दिए
चश्म वीराँ में रुके शहर-बदर होने तक
मैं भी बन जाऊँ शब-ए-ग़म कोई नन्हा बच्चा
जो कि खो जाता है ख़्वाबों में सहर होने तक
थे जिगर क़ल्ब-ओ-नज़र ज़ाद-ए-सफ़र जब 'शाज़ी'
ख़ौफ़-ए-तन्हाई था क्यूँ इज़्न-ए-सफ़र होने तक
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