अपनी आग को ज़िंदा रखना कितना मुश्किल है
अपनी आग को ज़िंदा रखना कितना मुश्किल है
पत्थर बीच आईना रखना कितना मुश्किल है
कितना आसाँ है तस्वीर बनाना औरों की
ख़ुद को पस-ए-आईना रखना कितना मुश्किल है
आँगन से दहलीज़ तलक जब रिश्ता सदियों का
जोगी तुझ को ठहरा रखना कितना मुश्किल है
दोपहरों के ज़र्द किवाड़ों की ज़ंजीर से पूछ
यादों को आवारा रखना कितना मुश्किल है
चुल्लू में हो दर्द का दरिया ध्यान में उस के होंट
यूँ भी ख़ुद को प्यासा रखना कितना मुश्किल है
तुम ने म'अबद देखे होंगे ये आँगन है यहाँ
एक चराग़ भी जलता रखना कितना मुश्किल है
दासी जाने टूटे-फूटे गीतों का ये दान
समय के चरनों में ला रखना कितना मुश्किल है
- पुस्तक : Kunj piile phuulo.n kaa (पृष्ठ 79)
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