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अपनी ख़्वाहिश के अगर पँख कुतरते बनते

आरिफ़ कुकरावी

अपनी ख़्वाहिश के अगर पँख कुतरते बनते

आरिफ़ कुकरावी

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    अपनी ख़्वाहिश के अगर पँख कुतरते बनते

    दश्त-ओ-सहरा में भी हमवार ये रस्ते बनते

    उस दिल-ए-शोख़ की बस एक नज़र है काफ़ी

    देर लगती नहीं एहसास के रिश्ते बनते

    आइना-ख़ाने ही लोगों का भरम रखते हैं

    वर्ना हर लम्हे तो चेहरे बदलते बनते

    कोई तो है जो हराने पे तुला है मुझ को

    बात यूँही तो नहीं बिगड़े है बनते बनते

    ता-कुजा दिल को तसल्ली पे तसल्ली देते

    ता-कुजा राह-ए-तमन्ना से चलते बनते

    गरचे होती मिरी ज़ीस्त की मुबहम ये किताब

    ज़िंदगी सब तिरे औराक़ ये पढ़ते बनते

    सब्र की मात जो होती तो ये होता 'आरिफ़'

    दिल के अरमान सर-ए-राह कुचलते बनते

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