बनाए हज़रत-ए-इंसाँ ने इस दीं के कई मदफ़न
बनाए हज़रत-ए-इंसाँ ने इस दीं के कई मदफ़न
मिली मुनकर को आज़ादी लगे मारूफ़ पर क़दग़न
हुए हैं मिम्बर-ओ-मेहराब ही तफ़रीक़ के मरकज़
ज़बानों ने पहन रक्खी है ख़स्ता-हाल सी उतरन
मुलूकीय्यत इबारत ख़ून से आहों से अश्कों से
हुकूमत के अँधेरों को ख़िलाफ़त ही करे रौशन
तुझे था फ़ख़्र कि शो'लों पे तेरी हुक्मरानी है
मगर ये देख चिंगारी जलाती है तिरा ख़िरमन
इन अर्बाब-ए-हुकूमत का कोई रिश्ता है क़ातिल से
वतन से जब वो निकले कूचा-ए-क़ातिल बना मस्कन
ख़ुशी थी उन को ये उफ़्ताद उन पर तो नहीं गुज़री
हटी चिलमन तो पाई है वही आँधी लब-ए-रौज़न
यही है मिनहज-ए-नबवी यही कार-ए-नुबुव्वत है
कि इंसाँ की ग़ुलामी से रहे आज़ाद हर गर्दन
उमीदें जुस्तुजू ख़्वाब-ओ-तमन्ना की हक़ीक़त क्या
अगर तू बे-अमल बे-हौसला फिर ये भी सर-अफ़्गन
ऐ 'ताबिश' तू निफ़ाज़-ए-हुक्म-ए-रब्बानी अगर चाहे
तो हो आग़ाज़ हुकमा से तरीक़ा है यही अहसन
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