बसे हैं इत्र-ए-सुहाग में हम गले से किस को लगा लिया है
बसे हैं इत्र-ए-सुहाग में हम गले से किस को लगा लिया है
शाह अकबर दानापुरी
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बसे हैं इत्र-ए-सुहाग में हम गले से किस को लगा लिया है
हमारा पैराहन-ए-मोहब्बत किसी की उतरी हुई क़बा है
शराब-ख़ाने में आया ज़ाहिद उतर गया जुब्बा-ए-रियाई
सदा-ए-क़ुलक़ुल ये कह रही है बिगड़ के ये आदमी बना है
अजीब सनअ'त का है ये पुतला उठा दूँ पर्दा दिखा दूँ जल्वा
अदब इजाज़त अगर मुझे दे तो कह दूँ कौन आदमी बना है
मिलेगा ये ख़ाक में यहीं पर न होगा कूचे से तेरे बाहर
लगा दिया अब तो हम ने बिस्तर ये दिल तुझी पर मिटा हुआ है
है ज़िंदगी बे-सबात ऐसी हबाब की हो नुमूद जैसी
बस ऐसे जीने की ऐसी-तैसी इधर तो उभरा उधर फ़ना है
अदम की मंज़िल से डर न 'अकबर' न चोर इस में न इस में रहज़न
हज़ारों लाखों हैं आते जाते ये रास्ता ख़ूब चल रहा है
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