बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
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बज़्म-ए-सुरूद-ए-ख़ूबाँ में गो मर्दनगीं शाहीन बजीं
साथ फ़क़ीर की ढोलक के पर ढम-ढमयाँ रंगीन बजीं
नाला-कशी से रात जो गुलशन रश्क-ए-बज़्म-ए-इशरत था
मिन्क़ारें मुर्ग़ान-ए-चमन की सुब्ह तलक जूँ बीन बजीं
तुझ से न कहता था मैं ज़ाहिद मय-ख़ाने की राह न चल
आख़िर तुझ पर रस्ते ही में तालियाँ ओ बे-दीन बजीं
मैं जो नशे में रात हुआ ग़टपट उस माशूक़ की छाती साथ
पाज़ेबें पाँव की उस के क्या ही ब-सद तमकीन बजीं
शम्अ रही शब जब तक जलती मुझ को न आई नींद ज़रा
झांझें परवाने के परों की बस कि सर-ए-बालीन बजीं
बलबे मिज़ाज-ए-नाज़ुक तेरा नींद उचट गई उस गुल की
बालियाँ पत्तों से जो उलझ कर रात सर-ए-बालीन बजीं
वा'दा कर के जब वो न आया सैर-ए-चमन को दिल ने कहा
रात गई चल बाग़ से अब घड़ियाँ तो कई ग़मगीन बजीं
जी का कुढ़ाना मेरे था मंज़ूर मगर घड़यालों की
वस्ल की शब जो ता-ब-सहर घड़यालें बे-आईन बजीं
डेढ़ पहर ठहरूँगा ये कह कि यार मिरे घर आया था
पर घबरा के जाने को उट्ठा जूँही पहर पर तीन बजीं
बाँग-ए-हमीर से कम वो न समझा बस कि नफ़ीस-मिज़ाज था यार
नाक़ूसें बुतख़ानों में हर चंद ब-सद तज़ईन बजीं
आए बहतरी हो के मलाएक मर जो गया आशिक़ तेरा
नौबतें क्या क्या शादी की मरक़द में दम-ए-तल्क़ीन बजीं
वस्ल की शब आख़िर होने का 'मुसहफ़ी' धड़का क्या मैं कहूँ
जी ही गया बस तन से निकल जब तीन पहर पर तीन बजीं
- पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(haftum) (पृष्ठ 164)
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