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बिकते हैं शहर में गुल-ए-बे-ख़ार हर तरफ़

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

बिकते हैं शहर में गुल-ए-बे-ख़ार हर तरफ़

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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    बिकते हैं शहर में गुल-ए-बे-ख़ार हर तरफ़

    है बाग़बाँ की गर्मी-ए-बाज़ार हर तरफ़

    क्या फ़स्ल-ए-गुल फिर आई जो करते हैं ज़मज़मा

    दाम-ए-क़फ़स में मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार हर तरफ़

    कोठे पे उस के फेंकूँ मैं किस राह से कमंद

    कम-बख़्त पासबाँ तो हैं बेदार हर तरफ़

    तोदे जहाँ थे उस के शहीदों की ख़ाक के

    तीर उस ने मारे नाज़ से दो-चार हर तरफ़

    जब उस की बर्क़-ए-हुस्न से पर्दा हुआ है वा

    ज़ाए हुए हैं तालिब-ए-दीदार हर तरफ़

    आशिक़ को उस गली से निकालें थे जब ब-ज़ोर

    पड़ती थी चश्म-ए-हसरत-ए-दीदार हर तरफ़

    दावत है किस की बज़्म-ए-फ़लक में जो कब से हैं

    आँखें लगाए रख़्ना-ए-दीवार हर तरफ़

    साबित बचा काफ़िर दीं-दार तक कोई

    तेग़-ए-निगह ने उस की किए वार हर तरफ़

    सौदे में जुस्तुजू के तिरी मता-ए-हुस्न

    सर मारते फिरें हैं ख़रीदार हर तरफ़

    पर्वाज़ का जो शौक़ है बुलबुल के मुश्त पर

    कुंज-ए-क़फ़स में उड़ते हैं नाचार हर तरफ़

    हैराँ हूँ मैं कि किस का ये कूचा है जिस के बीच

    टुकड़े हुए पड़े हैं तरह-दार हर तरफ़

    ग़ौग़ा है शर्क़ ग़र्ब जुनूब शुमाल में

    फ़ित्ने जगा गई तिरी रफ़्तार हर तरफ़

    गो मैं हुआ मुक़ीम तो क्या डर है 'मुसहफ़ी'

    सैर सफ़र में हैं मिरे अशआर हर तरफ़

    स्रोत :
    • पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(Vol-4)(pdf) (पृष्ठ 163)
    • रचनाकार : Ghulam hamdani Mashafi
    • प्रकाशन : Qaumi council baraye -farogh urdu (2005)
    • संस्करण : 2005

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