बुलबुल बजाए अपने तुझे हम-नवा से बहस
वाशुद में गुल की महज़ ग़लत है सबा से बहस
आईने को न चाहिए आशिक़ के दिल के साथ
बर-अक्स अपनी शक्ल के रू-ए-सफ़ा से बहस
अब तो ग़ुरूर-ए-हुस्न है ऐसा बुताँ तुम्हें
मुतलक़ महल्ल-ए-ख़ौफ़ नहीं है ख़ुदा से बहस
मबहस से उस मक़ाम के ख़ारिज है दख़्ल-ए-ग़ैर
जब आश्ना को आन पड़े आश्ना से बहस
बुलबुल हज़ार नग़्मा-सरा होए बाग़ में
कब कर सके है नाला-ए-दिल की सदा से बहस
दाना न उस को समझिए जो ग़ैर ख़ामुशी
दिल ख़स्ता हो फ़लक के करे आसिया से बहस
कब शम्अ' तेरे हुस्न के शो'ले के रू-ब-रू
महफ़िल में कर सके कम-ओ-बेश-ए-ज़िया से बहस
तौसन ने तेरी नाज़ुकी गुलशन में ख़त्म की
आज आब-ओ-रंग-ए-गुल की हवस पर हवा से बहस
गुलशन में चाक पैरहन-ए-गुल किया 'मुहिब'
बुलबुल ने कर के उस बुत-ए-गुलगूँ-क़बा से बहस
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.