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बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को

असद अली ख़ान क़लक़

बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को

असद अली ख़ान क़लक़

MORE BYअसद अली ख़ान क़लक़

    बुत-परस्ती ने किया आशिक़-ए-यज़्दाँ मुझ को

    पर्दा-ए-कुफ्र में हासिल हुआ ईमाँ मुझ को

    जब तलक ज़ुल्फ़-ए-रुख़-ए-यार का दीवाना रहा

    पीर समझा किए हिंदू-ओ-मुसलमाँ मुझ को

    चाहिए पैरहन-ए-दामन-ए-तेग़ क़ातिल

    तेरे ख़ंजर का है दरकार गरेबाँ मुझ को

    अब दर-अंदाज़ी-ए-अग़्यार नहीं चल सकती

    ख़ूब पहचानते हैं यार के दरबाँ मुझ को

    शर्म-ए-ईज़ा से मिरे दिल को यक़ीं है मौत

    मुँह दिखलाएगी सुब्ह-ए-शब-ए-हिज्राँ मुझ को

    ख़ाल-ए-रुख़ ख़िज़्र-ए-रह-ए-कुफ़्र होता जो तिरा

    दाम में ला ही चुके थे ये मुसलमाँ मुझ को

    चश्म-ए-खूँ-ख़्वार का आग़ोश-ए-मिज़ा में है ये क़ौल

    ज़ेब है कहिए अगर शेर-ए-नियस्ताँ मुझ को

    जिस में कुछ होती है उम्मीद-ए-विसाल-ए-महबूब

    इतनी खलती नहीं वो गर्दिश-ए-दौराँ मुझ को

    ये मा'लूम था इस रंग से आएगी बहार

    तौबा-ए-मय ने किया सख़्त पशेमाँ मुझ को

    इश्क़ ने मन्सब-ए-उ'श्शाक़ जो तक़्सीम किए

    बाग़ बुलबुल को दिया कूचा-ए-जानाँ मुझ को

    सोज़िश-ए-दिल से ये परवाने की सूरत तड़पा

    देख कर रोने लगी शम-ए-शबिस्ताँ मुझ को

    मुझ गिराँ-बार के महशर में तुलें जब आ'माल

    सुबुक कीजियो पल्ला-ए-मीज़ाँ मुझ को

    कौन अंदेशा-ए-फ़र्दा का मलाल आज करे

    मौसम-ए-गुल में नहीं फ़िक्र-ए-ज़मिस्ताँ मुझ को

    तेरे होते हुए ग़ैरत-ए-ख़ुर्शीद लूँ

    खोटे दामों भी मिले गर मह-ए-कनआँ' मुझ को

    सफ़-कशी अपनी दिखाता है मुझे क्या अशरार

    याद है उस की सफ़-आराई-ए-मिज़्गाँ मुझ को

    लब-ए-जाँ-बख़्श सनम का हूँ जो आशिक़ तो लोग

    जानते हैं ख़िज़र-ए-चश्मा-ए-हैवाँ मुझ को

    ना-तवाँ वो हूँ अजब क्या सिफ़त पा-ए-मलख़

    मोर ले जाए अगर पेश-ए-सुलैमाँ मुझ को

    मेरे ज़ुल्मत-कदे में लाएँ जो रौशन कर के

    किर्म-ए-शब आए नज़र शम-ए-शबिस्ताँ मुझ को

    सद्द-ए-बाब अब मिरा अग़्यार अबस करते हैं

    निकहत गुल हूँ नहीं कुछ ग़म-ए-दरबाँ मुझ को

    दिल-जला मैं हूँ वो आशिक़ कि शब-ए-हिज्र 'क़लक़'

    शम्अ' भी रोने लगी देख गरेबाँ मुझ को

    स्रोत :
    • Mazhar-e-Ishq

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