चाँद ही निकला न बादल ही छमा-छम बरसा
चाँद ही निकला न बादल ही छमा-छम बरसा
रात दिल पर ग़म-ए-दिल सूरत-ए-शबनम बरसा
जलती जाती हैं जड़ें सूखते जाते हैं शजर
हो जो तौफ़ीक़ तो आँसू ही कोई दम बरसा
मेरे अरमान थे बरसात के बादल की तरह
ग़ुंचे शाकी हैं कि ये अब्र बहुत कम बरसा
पै-ब-पै आए सजल तारों के मानिंद ख़याल
मेरी तन्हाई पे शब हुस्न झमाझम बरसा
कितने ना-पैद उजालों से किया है आबाद
वो अंधेरा जो मिरी आँखों पे पैहम बरसा
सर्द झोंकों ने कही सूनी रुतों से क्या बात
किन तमन्नाओं का ख़ूँ शाख़ों से थम थम बरसा
क़र्या क़र्या थी 'ज़िया' हसरत-ए-आबादी-ए-दिल
क़र्या क़र्या वही वीरानी का आलम बरसा
- पुस्तक : sar-e-shaam se pas-e-harf tak (पृष्ठ 194)
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