चमकने लगा है तिरा ग़म बहुत
चमकने लगा है तिरा ग़म बहुत
दिए हो चले अब तो मद्धम बहुत
घटाओं में तूफ़ाँ के आसार हैं
तिरी ज़ुल्फ़ है आज बरहम बहुत
यहाँ लहलहाए हैं अश्कों में बाग़
न इतराए फूलों पे शबनम बहुत
ये वो दौर है जिस का दरमाँ नहीं
ये वो राज़ है जिस के महरम बहुत
ये दामान-ए-वहशत की कुछ धज्जियाँ
बनाएँगे लोग इन से परचम बहुत
गदा-ए-मोहब्बत की ख़ुद्दारियाँ
मिले राह में ख़ुसरव-ओ-जम बहुत
सुलगती रही रात भर चाँदनी
शब-ए-हिज्र थी रौशनी कम बहुत
न जाएगी दिल से कभी आरज़ू
ये बुनियाद है आह-ए-मोहकम बहुत
- पुस्तक : NUQOOSH (पृष्ठ 185)
- रचनाकार : Mohammad Tufail
- प्रकाशन : Idarah Forogh-e-urdu, Lahore (Vol. 61,62Edition Jun/ Feb 1957)
- संस्करण : Vol. 61,62Edition Jun/ Feb 1957
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