दामन-ए-दिल पर नई गुलकारियाँ करते रहो
दामन-ए-दिल पर नई गुलकारियाँ करते रहो
ज़िंदगी से जंग की तय्यारियाँ करते रहो
रात कटने तक उन्हें हमवार करने के लिए
अपने अन्दर रोज़ ना-हमवारियाँ करते रहो
दुश्मनों से 'उम्र भर अपने निभाओ दुश्मनी
और यारों से हमेशा यारियाँ करते रहो
'इश्क़ करना ज़िम्मेदारी है नतीजा कुछ भी हो
सिर्फ़ पूरी अपनी ज़िम्मेदारियाँ करते रहो
बे-सबब मरने से अच्छा है कि हो कोई सबब
दोस्तो सिगरेट पियो मय-ख़्वारियाँ करते रहो
'उम्र इतनी कट गई है और भी कट जाएगी
दिल-रुबाओं से यूँही दिलदारियाँ करते रहो
खोल दो दिल और गुज़रने दो हवा-ए-‘इश्क़ को
राख में पैदा नई चिंगारियाँ करते रहो
- पुस्तक : सुब्ह-बख़ैर ज़िन्दगी (पृष्ठ 61)
- रचनाकार :अमीर इमाम
- प्रकाशन : रेख़्ता पब्लिकेशंस (2018)
- संस्करण : First
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