दस्तरस में कहकशाँ जुगनू दिया कुछ भी नहीं
दस्तरस में कहकशाँ जुगनू दिया कुछ भी नहीं
शुक्र है फिर भी मिरे मौला गिला कुछ भी नहीं
कौन है मक़्तूल क़ातिल कौन सब ख़ामोश हैं
बे-हिसी है वर्ना आँखों से छुपा कुछ भी नहीं
इस दिल-ए-बेताब को तस्कीन आख़िर कौन दे
इस की क़िस्मत में तहम्मुल के सिवा कुछ भी नहीं
रोज़-ओ-शब के अन-गिनत औराक़ पलटे हैं मगर
ज़िंदगी की क्या हक़ीक़त है पता कुछ भी नहीं
तेरी क़ुदरत में है सारे मसअलों का हल निहाँ
तेरे आगे मेरे मौला मसअला कुछ भी नहीं
क्या ये कम है उम्मती हूँ मैं तिरे महबूब का
कैसे कह दूँ ऐ ख़ुदा मुझ को मिला कुछ भी नहीं
मुंसिफ़ों के फ़ैसले इस दौर में हैं बे-मिसाल
उस को देते हैं सज़ा जिस की ख़ता कुछ भी नहीं
बेवफ़ा को क्या सुनाता मैं वफ़ा की दास्ताँ
मैं ने उस को आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं
मैं किसी को क्यूँ सुनाऊँ अपनी रूदाद-ए-हयात
तू मिरा 'मक़्सूद' तुझ से तो छुपा कुछ भी नहीं
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