दिखलाए न क्यों हश्र का आलम शब-ए-फ़ुर्क़त
दिखलाए न क्यों हश्र का आलम शब-ए-फ़ुर्क़त
मुंशी देबी प्रसाद सहर बदायुनी
MORE BYमुंशी देबी प्रसाद सहर बदायुनी
दिखलाए न क्यों हश्र का आलम शब-ए-फ़ुर्क़त
कुछ रोज़-ए-क़यामत से नहीं कम शब-ए-फ़ुर्क़त
बरपा न हो क्यों शेवन-ओ-मातम शब-ए-फ़ुर्क़त
है हक़ में मिरे रोज़-ए-मोहर्रम शब-ए-फ़ुर्क़त
करता है फ़लक देख के हालत मिरी ज़ारी
ये चर्ख़ से गिरती नहीं शबनम शब-ए-फ़ुर्क़त
घबरा न बहुत सा वो अब आता है अब आता
देता हूँ दिल-ए-ज़ार को यूँ दम शब-ए-फ़ुर्क़त
हैं मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ मगर एक हैं मा'नी
ज़िंदाँ मलक-उल-मौत जहन्नम शब-ए-फ़ुर्क़त
मौजूद हो जिस में कि हर इक तरह की ता'ज़ीब
सब कहते हैं दोज़ख़ उसे और हम शब-ए-फ़ुर्क़त
दिल में मिरे मर जाते हैं अरमान हज़ारों
बरपा न हों क्यूँ नारा-ए-मातम शब-ए-फ़ुर्क़त
दुनिया में सदा रंज से राहत है मोअख़्ख़र
और वस्ल की शब पर है मुक़द्दम शब-ए-फ़ुर्क़त
सीना मिरा कर देती है अफ़गार सितम-गर
सोहराब हूँ मैं और है रुस्तम शब-ए-फ़ुर्क़त
क्या पूछता है कौन तिरे दरपए-जाँ है
ऐ मोनिस-ए-जाँ और मिरी हमदम शब-ए-फ़ुर्क़त
ऐ 'सेहर' नहीं जान की अब ख़ैर तुम्हारी
आती रही गर यूँही ये पैहम शब-ए-फ़ुर्क़त
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