दिल के सहरा में ज़माने से भटकते हुए ख़्वाब
दिल के सहरा में ज़माने से भटकते हुए ख़्वाब
ख़ुश्क आँखों से टपक आए झिझकते हुए ख़्वाब
शाम से पहले चली आती हैं नींदें अब तो
जब से बसने लगे आँखों में महकते हुए ख़्वाब
ग़म में डूबी हुई रातों को उजाला देने
हम ने पलकों पे सजाए हैं दहकते हुए ख़्वाब
बेड़ियाँ डाल के जकड़ा है ख़ुशी ने जब से
ग़म की दहलीज़ पे आ पहुँचे सरकते हुए ख़्वाब
ज़ख़्म 'अफ़रोज़' चमक उठते हैं जुगनू की तरह
दर्द जब दिल का भड़कते हैं सिसकते हुए ख़्वाब
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