दिल पे गर चोट न लगती तो न इशरत थी न ग़म
दिल पे गर चोट न लगती तो न इशरत थी न ग़म
साज़ के पर्दे से बाहर न निकलता सरगम
हम को बख़्शा है ज़माने ने जहाँ भर का अलम
ताब-ए-ख़ुर्शीद से छलनी हुआ क़ब्ल-ए-शबनम
अब ये हालत है कि वो ख़ुद हुए माइल-ब-करम
आज याद आए बहुत हम को ज़माने के सितम
ख़ाक-ए-परवाना दम-ए-सुब्ह उड़ी जाती है
खुल न जाए कहीं महफ़िल के चराग़ों का भरम
जैसे ऊषा की लरज़ती हुई पहली आहट
यूँ तबस्सुम तिरे होंटों पे है दरहम बरहम
ख़ालिक़-ए-जूद-ओ-सख़ा ये तो बड़ी बात न थी
तेरी दुनिया में तबस्सुम को तरसते रहे हम
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