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दिल वो जिस के आईने में अक्स-ए-आइंदा रहा

तसनीम फ़ारूक़ी

दिल वो जिस के आईने में अक्स-ए-आइंदा रहा

तसनीम फ़ारूक़ी

MORE BYतसनीम फ़ारूक़ी

    दिल वो जिस के आईने में अक्स-ए-आइंदा रहा

    तीरा दामन मंज़िलों में भी दरख़्शंदा रहा

    आह-ए-आवारा की सूरत रूह-ए-गुल प्यासी रही

    फूल ख़ुश्बू बन के शबनम के लिए ज़िंदा रहा

    हाए वो इक मुफ़्लिस-ओ-बे-ख़ानुमा जो उम्र-भर

    साया-ए-दीवार अहल-ए-ज़र का बाशिंदा रहा

    कौन हम से छीन सकता है मोहब्बत का मिज़ाज

    पत्थरों में रह के भी ये नक़्श ताबिंदा रहा

    ज़िंदगी से यूँ तो समझौता किया सब ने मगर

    जिस ने जीने की क़सम खाई वही ज़िंदा रहा

    काएनात-ए-नूर-ओ-ज़ुल्मत है मिरा अपना वजूद

    रौशनी में भी मिरा साया नुमाइंदा रहा

    जाने क्या क्या कह गया उस से मिरा हुस्न-ए-सुकूत

    देर तक वो मेरे चुप रहने पे शर्मिंदा रहा

    हादसे तो और भी 'तसनीम' से उलझे मगर

    इक तिरा ग़म था जो हर आलम में पाइंदा रहा

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