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दिन-भर सूरज आग उगलता रहता है

समीर कबीर

दिन-भर सूरज आग उगलता रहता है

समीर कबीर

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    दिन-भर सूरज आग उगलता रहता है

    चाँद भी अपने काम में उलझा रहता है

    जाने मुझ में कौन तड़पता रहता है

    मैं जीता हूँ पर वो मारता रहता है

    दरवाज़े पे कुंडी लटकी रहती है

    खिड़की से वो आता जाता रहता है

    ख़ामोशी की भाषा ख़ूब समझता है

    मैं तो चुप हूँ पर वो सुनता रहता है

    मेरे सारे बादल सूखे सूखे हैं

    फिर भी आँगन भीगा भीगा रहता है

    उस से मिल कर ख़ुद से बातें करनी है

    मुझ में कौन ये मेरे जैसा रहता है

    ज़ेहन के सारे तार उलझने लगते हैं

    दिल भी अक्सर बिखरा बिखरा रहता है

    दुनिया-दारी उस के बस की बात नहीं

    वो कोने में लिखता पढ़ता रहता है

    मैं घर में ही रहता हूँ अक्सर अपने

    इक सन्नाटा बाहर पसरा रहता है

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