दुनिया में नाम को भी मोहब्बत नहीं रही
दुनिया में नाम को भी मोहब्बत नहीं रही
इंसान की वो पहली सी फ़ितरत नहीं रही
बे-हुरमती-ए-हज़रत-ए-आदम को देख कर
अपने तो दिल में हसरत-ए-जन्नत नहीं रही
हासिल उसे मक़ाम फ़रिश्तों का था कभी
सद-हैफ़ आदमी की वो अज़्मत नहीं रही
आतश-बजाँ है बर्क़-ए-तपाँ किस के वास्ते
हम आशियाँ बनाएँ ये हसरत नहीं रही
अपनों का लुत्फ़ जौर-ए-मुसलसल से कम नहीं
ग़ैरों से हम को कोई शिकायत नहीं रही
'साबिर' किसी की याद में ख़ुद को भुला सकें
कार-ए-जहाँ से इतनी भी फ़ुर्सत नहीं रही
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