फ़साना-ए-दर्द-ए-इश्क़ उनवाँ बदल बदल कर सुना रहा हूँ
फ़साना-ए-दर्द-ए-इश्क़ उनवाँ बदल बदल कर सुना रहा हूँ
जिगर जिगर में उतर रहा हूँ नज़र नज़र में समा रहा हूँ
हरीम-ए-नाज़-ओ-नियाज़ में क्या, मज़े मोहब्बत के पा रहा हूँ
फ़साना-ए-ऐश सुन रहा हूँ फ़साना-ए-ग़म सुना रहा हूँ
तुम्हारी मश्क-ए-जफ़ा के सदक़े बुलंद हैं दिल के हौसले भी
जहाँ जहाँ चोट पड़ रही है वहाँ वहाँ मुस्कुरा रहा हूँ
सिरात-ए-हुस्न-ए-तलब में मुझ को अँधेरी रातों का ग़म नहीं है
तिरी मोहब्बत की रौशनी में क़दम मैं अपना बढ़ा रहा हूँ
यक़ीन मानो कि बिजलियाँ भी फ़लक से आ कर पनाह लेंगी
चमन में सुल्ह-ओ-सफ़ा के तिनकों से आशियाना बना रहा हूँ
फ़लक के दामन पे चाँद तारे नहीं दरख़्शाँ तो क्या 'नुजूमी'
हज़ारों अरमाँ का ख़ून दे कर मैं शब को रंगीं बना रहा हूँ
- पुस्तक : (Beesvin Sadi Main) Maghrabi Bengal Ke urdu Shora (पृष्ठ 383)
- रचनाकार : Mushtaq ahmed M.A
- प्रकाशन : Iqbal Ahmad And Baradars Sayed Suleh Len Kolkata (1972)
- संस्करण : 1972
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