फ़सुर्दा दाग़-ए-जिगर दिल-रुबा नहीं रहता
फ़सुर्दा दाग़-ए-जिगर दिल-रुबा नहीं रहता
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी
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फ़सुर्दा दाग़-ए-जिगर दिल-रुबा नहीं रहता
चराग़ इश्क़ का हरगिज़ बुझा नहीं रहता
बग़ल में रश्क से दिल दिल-रुबा नहीं रहता
ख़फ़ा है ये कि तू मुझ से ख़फ़ा नहीं रहता
हमेशा हुस्न सुन ऐ बेवफ़ा नहीं रहता
कभी ज़माना सदा एक सा नहीं रहता
बुझी जो शम्अ' तो परवानों पे हुआ रौशन
कि बा'द-ए-मर्ग कोई आश्ना नहीं रहता
कहाँ वो गिर्या वो नाला वो जाँ-ब-लब रहना
किसी का काम हमेशा बना नहीं रहता
ख़ुदा-न-ख़ास्ता तुम तो सनम नहीं ऐसे
तुम्हारे दिल में तो कीना सदा नहीं रहता
कहा जो मैं ने कि ऐ रश्क-ए-माह घर में मिरे
तू मेहरबानी से क्यूँ इक ज़रा नहीं रहता
लगा ये कहने कि हाँ हाँ है ये भी अपना शौक़
नहीं नहीं नहीं रहता हूँ जा नहीं रहता
जो मुझ को कहिए मैं आँखों से ज़ब्त-ए-गिर्या करूँ
मिरा क़ुसूर नहीं दिल मिरा नहीं रहता
यहाँ मुझे ही नसीहत को हैं सभी मौजूद
वहाँ तो होश किसी का बजा नहीं रहता
ये दाग़-ए-इश्क़ है क्यूँ-कर न गुल खिले इस का
हज़ार इस को छुपाओ छुपा नहीं रहता
जो दिल लिया है तो बोसा भी दो समझ रक्खो
कि बद-मोआ'मलगी में मज़ा नहीं रहता
लगाई ताक है क्यूँ मोहतसिब ने तुझ पे दिला
अगर तू दुख़्तर-ए-रज़ से भला नहीं रहता
न खींच तेग़ तू 'एहसान' ना-तवान पे आह
मियाँ ये ज़ोर किसी का सदा नहीं रहता
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