गहरी आँखों में ये कैसी है बिछड़ती महफ़िलों की रौशनी
गहरी आँखों में ये कैसी है बिछड़ती महफ़िलों की रौशनी
मोहम्मद अजमल नियाज़ी
MORE BYमोहम्मद अजमल नियाज़ी
गहरी आँखों में ये कैसी है बिछड़ती महफ़िलों की रौशनी
अजनबी लोगों में देखी मैं ने अपने दोस्तों की रौशनी
मंज़िलों पर वो पहुँच कर भी अभी तक मंज़िलों जैसा नहीं
उस की सोचों से बंधी है रास्ते के मंज़रों की रौशनी
उस के मेरे दरमियाँ पाकीज़गी का रक़्स तो होता नहीं
एक पर्दे की तरह रहती है नंगी ख़्वाहिशों की रौशनी
मैं ने उस को ख़्वाब में देखा तो वो इक और ही दुनिया में था
उस के हर जानिब बिखरती जा रही थी रत-जगों की रौशनी
अब तो उस का दर्द भी 'अजमल' समुंदर की तरह गहरा नहीं
इस जज़ीरे में भटकती है अकेले साहिलों की रौशनी
- पुस्तक : Pakistani Adab (पृष्ठ 666)
- रचनाकार : Dr. Rashid Amjad
- प्रकाशन : Pakistan Academy of Letters, Islambad, Pakistan (2009)
- संस्करण : 2009
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