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ग़ैर उधर लुत्फ़-ओ-करम से महज़ूज़

सय्यद मसूद हसन मसूद

ग़ैर उधर लुत्फ़-ओ-करम से महज़ूज़

सय्यद मसूद हसन मसूद

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    ग़ैर उधर लुत्फ़-ओ-करम से महज़ूज़

    हम इधर ज़ुल्म-ओ-सितम से महज़ूज़

    है ख़ुशी पर तिरी मौक़ूफ़ ख़ुशी

    क्यों हूँ रंज-ओ-अलम से महज़ूज़

    बैठने वाले तिरी महफ़िल के

    होंगे क्या बाग़-ए-इरम से महज़ूज़

    ज़िंदगी से मिरी दुनिया आजिज़

    एक आलम तिरे दम से महज़ूज़

    आसमाँ पर है दिमाग़-ए-वाइज़

    आज आया है हरम से महज़ूज़

    नार-ए-दोज़ख़ से बचाएँगे यही

    क्यों हों दीदा-ए-नम से महज़ूज़

    कम हैं अल्लाह के बंदे ऐसे

    जो हों जाह-ओ-हशम से महज़ूज़

    मुझ को ग़म ऐन-ए-ख़ुशी हो जाए

    आप हों तो मिरे ग़म से महज़ूज़

    जाते हैं हो के अदम को ग़मगीं

    आते हैं लोग अदम से महज़ूज़

    कभी हँसना कभी रोना-धोना

    बे-ख़ुदी ही शब-ए-ग़म से महज़ूज़

    हम तो 'मसऊद' रहे दुनिया में

    दैर से शाद हरम से महज़ूज़

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