ग़ैर उधर लुत्फ़-ओ-करम से महज़ूज़
ग़ैर उधर लुत्फ़-ओ-करम से महज़ूज़
हम इधर ज़ुल्म-ओ-सितम से महज़ूज़
है ख़ुशी पर तिरी मौक़ूफ़ ख़ुशी
क्यों न हूँ रंज-ओ-अलम से महज़ूज़
बैठने वाले तिरी महफ़िल के
होंगे क्या बाग़-ए-इरम से महज़ूज़
ज़िंदगी से मिरी दुनिया आजिज़
एक आलम तिरे दम से महज़ूज़
आसमाँ पर है दिमाग़-ए-वाइज़
आज आया है हरम से महज़ूज़
नार-ए-दोज़ख़ से बचाएँगे यही
क्यों न हों दीदा-ए-नम से महज़ूज़
कम हैं अल्लाह के बंदे ऐसे
जो न हों जाह-ओ-हशम से महज़ूज़
मुझ को ग़म ऐन-ए-ख़ुशी हो जाए
आप हों तो मिरे ग़म से महज़ूज़
जाते हैं हो के अदम को ग़मगीं
आते हैं लोग अदम से महज़ूज़
कभी हँसना कभी रोना-धोना
बे-ख़ुदी ही शब-ए-ग़म से महज़ूज़
हम तो 'मसऊद' रहे दुनिया में
दैर से शाद हरम से महज़ूज़
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