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गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

MORE BYमुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

    गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा

    तो ज़ेर-ए-ख़ाक ये बे-क़रार ठहरेगा

    बोलो कोई मिरे झगड़े में समझ लूँगा

    मिरे और उस के जो दार-ओ-मदार ठहरेगा

    अगर ये है तिरे दामन की हश्र-ओ-नश्र मियाँ

    ज़मीं पे ख़ाक हमारा ग़ुबार ठहरेगा

    चली भी जा जरस-ए-ग़ुंचा की सदा पे नसीम

    कहीं तो क़ाफ़िला-ए-नौ-बहार ठहरेगा

    तुम्हारे नावक-ए-मिज़्गाँ के सामने ख़ूबाँ

    कहाँ तलक ये दिल-ए-दाग़दार ठहरेगा

    यही है लूट तो शाने के हाथ से प्यारे

    एक भी तिरी ज़ुल्फ़ों का तार ठहरेगा

    तुम्हारे वादों पे हम को तो अब नहीं ठहराव

    मगर नया कोई उम्मीद-वार ठहरेगा

    जो सैर करनी है कर ले कि जब ख़िज़ाँ आई

    गुल रहेगा चमन में ख़ार ठहरेगा

    ख़दंग-ख़ुर्दा दिल आगे से उस के जाता है

    ख़बर नहीं कि कहाँ ये शिकार ठहरेगा

    शिताब आइयो ठहरा रखेंगे हम उस को

    जो जाँ लबों पे शब-ए-इंतिज़ार ठहरेगा

    उसे दफ़्न करो समझो तो कोई यारो

    ज़मीं में 'मुसहफ़ी'-ए-बे-क़रार ठहरेगा

    स्रोत :
    • पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(awwa) (पृष्ठ 117)

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