गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
गर और भी मिरी तुर्बत पे यार ठहरेगा
तो ज़ेर-ए-ख़ाक न ये बे-क़रार ठहरेगा
न बोलो कोई मिरे झगड़े में समझ लूँगा
मिरे और उस के जो दार-ओ-मदार ठहरेगा
अगर ये है तिरे दामन की हश्र-ओ-नश्र मियाँ
ज़मीं पे ख़ाक हमारा ग़ुबार ठहरेगा
चली भी जा जरस-ए-ग़ुंचा की सदा पे नसीम
कहीं तो क़ाफ़िला-ए-नौ-बहार ठहरेगा
तुम्हारे नावक-ए-मिज़्गाँ के सामने ख़ूबाँ
कहाँ तलक ये दिल-ए-दाग़दार ठहरेगा
यही है लूट तो शाने के हाथ से प्यारे
न एक भी तिरी ज़ुल्फ़ों का तार ठहरेगा
तुम्हारे वादों पे हम को तो अब नहीं ठहराव
मगर नया कोई उम्मीद-वार ठहरेगा
जो सैर करनी है कर ले कि जब ख़िज़ाँ आई
न गुल रहेगा चमन में न ख़ार ठहरेगा
ख़दंग-ख़ुर्दा दिल आगे से उस के जाता है
ख़बर नहीं कि कहाँ ये शिकार ठहरेगा
शिताब आइयो ठहरा रखेंगे हम उस को
जो जाँ लबों पे शब-ए-इंतिज़ार ठहरेगा
उसे न दफ़्न करो समझो तो कोई यारो
ज़मीं में 'मुसहफ़ी'-ए-बे-क़रार ठहरेगा
- पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(awwa) (पृष्ठ 117)
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