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हम अहल-ए-अज़्म अगर दिल से जुस्तुजू करते

मुजीब ख़ैराबादी

हम अहल-ए-अज़्म अगर दिल से जुस्तुजू करते

मुजीब ख़ैराबादी

MORE BYमुजीब ख़ैराबादी

    हम अहल-ए-अज़्म अगर दिल से जुस्तुजू करते

    तो और मंज़िल-ए-जानाँ को सुर्ख़-रू करते

    दस्तरस में बहारें दिल ही क़ाबू में

    ग़रीब-ए-शहर कहाँ तक जिगर लहू करते

    किसे ख़बर है कि दिल के कँवल खिलें खिलें

    कटी है उम्र बहारों की आरज़ू करते

    सके थे ये हालात का तक़ाज़ा था

    जो गए थे तो फिर खुल के गुफ़्तुगू करते

    ये फ़ैसला तो किया दिल ने बार बार मगर

    इक आरज़ू ही रही तर्क-ए-आरज़ू करते

    सुकून-ए-सीना-ए-तूफ़ाँ 'मुजीब' क्या शय है

    ये जानिए तो साहिल की आरज़ू करते

    स्रोत :
    • पुस्तक : auraq salnama magazines (पृष्ठ 512)
    • रचनाकार : Wazir Agha,Arif Abdul Mateen
    • प्रकाशन : Daftar Mahnama Auraq Lahore (1967)
    • संस्करण : 1967

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