हम तो उस कूचे में घबरा के चले आते हैं
हम तो उस कूचे में घबरा के चले आते हैं
दो क़दम जाते हैं फिर जा के चले आते हैं
हम को ऐ शर्म टुक अब उस की तरफ़ जाने दे
हाल अपना उसे दिखला के चले आते हैं
दिन को ज़िन्हार ठहरते नहीं हम उस कू मैं
रात को मिलने की ठहरा के चले आते हैं
वो अदा-कुश्ता ठहरता नहीं फिर मक़्तल में
लाश को जिस की वो ठुकरा के चले आते हैं
मैं भरोसे ही में रहता हूँ तिरी ज़ुल्फ़ों में
यार मेरे मुझे फँसवा के चले आते हैं
वो जो मिलता नहीं हम उस की गली में दिल को
दर-ओ-दीवार से बहला के चले आते हैं
जाते हैं कूचे में हम उस के तो वाँ ग़ैर को देख
फिर न आने की क़सम खा के चले आते हैं
क़ैदी मर जाते हैं जब आप कभी ज़िंदाँ के
क़ुफ़्ल दरवाज़े को लगवा के चले आते हैं
छूटते हैं जो असीरान-ए-क़फ़स गुलशन में
क्या ही पर शौक़ से फैला के चले आते हैं
ग़ैर जब वस्ल का करता है सवाल उन से तो वे
कैसे महजूब हो दम खा के चले आते हैं
रह-रवान-ए-सफ़र-ए-बादिया-ए-इशक़ ऐ वाए
क़ाफ़िले राह में लुटवा के चले आते हैं
मैं तो समझा था बुझावेंगे कुछ आँसू तुफ़-ए-दिल
ये तो और आग को भड़का के चले आते हैं
साथ मय्यत के मिरी वो नहीं चलते दो क़दम
बस वहीं नाश को उठवा के चले आते हैं
दिल की बेताबी से जाते तो हैं हम उस कू में
लेक इस जाने से पछता के चले आते हैं
बद्रक़ा गर नहीं अहबाब तो फिर क्यूँ पस-ए-मर्ग
ता-बा-मंज़िल मुझे पहुँचा के चले आते हैं
'मुसहफ़ी' के तईं देखें हैं जो वो कुश्ता पड़ा
पास जाते नहीं शर्मा के चले आते हैं
- पुस्तक : kulliyat-e-mas.hafii(divan-e-soom) (पृष्ठ 149)
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