हमारे ज़ख़्म की क्या फ़िक्र चारा-जू करते
हमारे ज़ख़्म की क्या फ़िक्र चारा-जू करते
तुम्हीं ने चाक किया है तुम्हीं रफ़ू करते
चमन में आप से वो खुल के गुफ़्तुगू करते
ये मुँह गुलों का कि दावा-ए-रंग-ओ-बू करते
मिला के आँख वो हम से जो गुफ़्तुगू करते
तो हम भी खुल के ज़रा शरह-ए-आरज़ू करते
हमारे आइना-ए-दिल से कोई बहस न थी
तुम अपने मद्द-ए-मुक़ाबिल से गुफ़्तुगू करते
ये बात ऐसी थी हम मुँह भी चूमते जाते
वो पास बैठ के यूँ शिकवा-ए-अदू करते
ख़याल-ए-ग़ैर से दिल टुकड़े टुकड़े हो जाता
हमारे सामने दामन अगर रफ़ू करते
ये लफ़्ज़ वो है मुअ'म्मा कभी न हल होता
तमाम उम्र अगर शरह-ए-आरज़ू करते
तलाश-ए-यार में मुझ से भी दो क़दम आगे
निकल गए हैं मिरे अश्क जुस्तुजू करते
क़यामत आए न क्यों क़ब्र पर सुबू-बर-दोश
अज़ल के मस्त उठे हैं सुबू सुबू करते
गिरे हुए थे हमारी ही आँख से 'सफ़दर'
इन आंसुओं की वो क्या ख़ाक आबरू करते
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