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हर चंद कि हम मूरिद-ए-पुर-क़हर-ओ-ग़ज़ब हैं

मुसतफ़ा राही

हर चंद कि हम मूरिद-ए-पुर-क़हर-ओ-ग़ज़ब हैं

मुसतफ़ा राही

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    हर चंद कि हम मूरिद-ए-पुर-क़हर-ओ-ग़ज़ब हैं

    बातिल के परस्तार पहले थे अब हैं

    वो लोग कहाँ अब जिन्हें कहते थे मुजाहिद

    इस दौर-ए-तरक़्क़ी में सब आराम-तलब हैं

    फ़ुर्सत जो मिले ग़म से तो मिस्मार ही कर दूँ

    जितने भी सर-ए-राह ये ऐवान-ए-तरब हैं

    क्या जानिए किस नश्शा-ए-ग़फ़लत में हैं सरशार

    मदहोश नहीं हम मगर हुश्यार भी कब हैं

    रहबर हैं कि रहज़न हैं समझ में नहीं आता

    हमदर्द नहीं एक भी हमराह तो सब हैं

    ईमा-ए-नज़र हो तो दिल-ओ-जाँ भी तसद्दुक़

    हम वो नहीं जो मुंतज़िर-ए-जुम्बिश-ए-लब हैं

    दिल डूबने लगता है तसव्वुर से भी जिन के

    ऐसे भी मक़ामात सर-ए-राह-ए-तलब हैं

    दिल चीर गई जिन की फ़ुग़ान-ए-शब-ए-तारीक

    अब रंग-ए-सहर देख के क्यों मुहर-ब-लब हैं

    'राही' से मिले जब भी ये महसूस किया है

    उस शख़्स के जज़बात-ओ-ख़यालात अजब हैं

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