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हर मोड़ नई इक उलझन है क़दमों का सँभलना मुश्किल है

इक़बाल सफ़ी पूरी

हर मोड़ नई इक उलझन है क़दमों का सँभलना मुश्किल है

इक़बाल सफ़ी पूरी

MORE BYइक़बाल सफ़ी पूरी

    हर मोड़ नई इक उलझन है क़दमों का सँभलना मुश्किल है

    वो साथ दें फिर धूप तो क्या साए में भी चलना मुश्किल है

    यारान-ए-सफ़र हैं तेज़-क़दम कशमकश-ए-दिल क्या होगा

    रुकता हूँ तो बिछड़ा जाता हूँ चलता हूँ तो चलना मुश्किल है

    अब हम पे खुला ये राज़ चमन उलझा के बहारों में दामन

    काँटों से निकलना आसाँ था फूलों से निकलना मुश्किल है

    ताबानी-ए-हुस्न-ए-आलम है गर्मी-ए-मोहब्बत के दम से

    परवाने अगर महफ़िल में हों फिर शम्अ का जलना मुश्किल है

    नाकामी-ए-क़िस्मत क्या शय है क्या चीज़ शिकस्ता-पाई है

    दो-गाम पे मंज़िल है लेकिन दो-गाम भी चलना मुश्किल है

    या हम से परेशाँ ख़ुशबू थी या बंद हैं अब कलियों की तरह

    या मिस्ल-ए-सबा आवारा थे या घर से निकलना मुश्किल है

    लिखते रहे ख़ून-ए-दिल से जिसे ताईद-ए-निगाह-ए-दोस्त में हम

    'इक़बाल' अब उस अफ़्साने का उनवान बदलना मुश्किल है

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    इक़बाल सफ़ी पूरी

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    स्रोत :
    • पुस्तक : Ghazal Calendar-2015 (पृष्ठ 20.02.2015)

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