हर क़दम पर नए आज़ार हुआ करते हैं
हर क़दम पर नए आज़ार हुआ करते हैं
मरहले शौक़ के दुश्वार हुआ करते हैं
मर्सिया पढ़ता हूँ दिल का तो ग़ज़ल बनती है
मेरे अल्फ़ाज़ अज़ादार हुआ करते हैं
रक़्स-ए-बिस्मिल के मुक़द्दर में है दश्त-ओ-सहरा
और मुजरे सर-ए-बाज़ार हुआ करते हैं
वो अलग दौर था जब 'इश्क़ पे कुछ ज़ोर न था
अब के 'आशिक़ बड़े हुशियार हुआ करते हैं
मसनद-ए-दर्स-ए-सुख़न पर भी सुख़न-फ़हम नहीं
सिर्फ़ ग़ालिब के तरफ़-दार हुआ करते हैं
हुस्न-ए-ज़ाहिर की हक़ीक़त नहीं खुलती जब तक
लोग मरने को भी तैयार हुआ करते हैं
मुस्कुराते हुए आँखें भी छलक पड़ती हैं
दर्द-ए-दिल यार पुर-असरार हुआ करते हैं
तुम कि बाज़ार में आते हो नुमाइश के लिए
हम नुमाइश के ख़रीदार हुआ करते हैं
बात इस बात में है जिस से कोई बात बने
यूँ लतीफ़े भी मज़ेदार हुआ करते हैं
ज़िंदगी सफ़्हा-ए-तक़दीर का अफ़्साना है
हम हक़ीक़त में अदाकार हुआ करते हैं
आख़िरी नान-ए-शबीना की तलब में 'नासिर'
रोज़ बाज़ार में हम ख़्वार हुआ करते हैं
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