हर ज़ी-हयात का है सबब जो हयात का
हर ज़ी-हयात का है सबब जो हयात का
निकले है जी ही उस के लिए काएनात का
बिखरी है ज़ुल्फ़ उस रुख़-ए-आलम-फ़रोज़ पर
वर्ना बनाओ होवे न दिन और रात का
दर-पर्दा वो ही मा'नी मुक़व्वम न हों अगर
सूरत न पकड़े काम फ़लक के सबात का
हैं मुस्तहील ख़ाक से अज्ज़ा-ए-नव-ख़ताँ
क्या सहल है ज़मीं से निकलना नबात का
मुस्तहलक उस के 'इश्क़ के जानें हैं क़दर-ए-मर्ग
ईसा-ओ-ख़िज़्र को है मज़ा कब वफ़ात का
अश्जार होवें ख़ामा-ओ-आब-ए-सियह-बेहार
लिखना न तो भी हो सके उस की सिफ़ात का
उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झुमके है सब में नूर
शम-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का
बिज़्ज़ात है जहाँ में वो मौजूद हर जगह
है दीद चश्म-ए-दिल के खुले ऐन ज़ात का
हर सफ़्हे में है महव-ए-कलाम अपना दस जगह
मुसहफ़ को खोल देख टक अंदाज़ बात का
हम मुज़न्निबों में सिर्फ़ करम से है गुफ़्तुगू
मज़कूर ज़िक्र याँ नहीं सौम-ओ-सलात का
क्या 'मीर' तुझ को नामा-स्याही का फ़िक्र है
ख़त्म-ए-रुसुल सा शख़्स है ज़ामिन नजात का
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 2, ग़ज़ल नंo- 0664
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