हस्ती-ए-हक़ के म'आनी जो मिरा दिल समझा
हस्ती-ए-हक़ के म'आनी जो मिरा दिल समझा
अपनी हस्ती को इक अंदेशा-ए-बातिल समझा
वो शनावर हूँ जो हर मौज को साहिल समझा
वो मुसाफ़िर हूँ जो हर गाम को मंज़िल समझा
काफ़िरी सेहर न थी 'इश्क़-ए-बुताँ खेल न था
ब-ख़ुदा मैं तो इसी से उसे मुश्किल समझा
उतरा दरिया में प-ए-ग़ुस्ल जो वो ग़ैरत-ए-गुल
शोर-ए-अमवाज को मैं शोर-ए-अनादिल समझा
कुफ्र-ओ-इस्लाम की तफ़रीक़ नहीं फ़ितरत में
ये वो नुक़्ता है जिसे मैं भी ब-मुश्किल समझा
शैख़ ने चश्म-ए-हिक़ारत से जो देखा मुझ को
ब-ख़ुदा मैं उसे अल्लाह से ग़ाफ़िल समझा
न किया यार ने 'अकबर' के जुनूँ को तस्लीम
मिल गई आँख तो कुछ सोच के ‘आक़िल समझा
- पुस्तक : ہنگامہ ہے کیوں برپا (पृष्ठ 46)
- रचनाकार : اکبر الہ آبادی
- प्रकाशन : ریختہ بکس (2023)
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.