हवा चमन की भला हम को साज़गार कहाँ
हवा चमन की भला हम को साज़गार कहाँ
बहार नाम को है असल में बहार कहाँ
जो तुम नहीं थे तो इक लुत्फ़-ए-इंतिज़ार तो था
तुम आ गए हो तो अब लुत्फ़-ए-इंतिज़ार कहाँ
चमन से दूर भी देखी है फ़स्ल-ए-गुल हम ने
मगर वो सिलसिला-ए-नग़्मा-ए-बहार कहाँ
नुमूद-ए-सुब्ह हुई और उजड़ गई महफ़िल
मय-ए-शबाना कहाँ अब वो मय-गुसार कहाँ
चमन ये शहर-ए-निगाराँ बना तो है लेकिन
मिरी बहार को छोड़ आई है बहार कहाँ
हुई हैं उन से उचटती सी कुछ मुलाक़ातें
मगर ये कैफ़ ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार कहाँ
न सीना चाक है कोई न अब गरेबाँ चाक
गया न जाने वो सर्माया-ए-बहार कहाँ
ब-फ़ैज़-ए-अज़्मत-ए-इस्याँ मिली है ये तौक़ीर
वगर्ना दर-ख़ुर-ए-रहमत गुनाहगार कहाँ
न वो सोहबत-ए-माज़ी न उस की याद ऐ 'अर्श'
जो कारवाँ ही नहीं है तो फिर ग़ुबार कहाँ
- पुस्तक : Kulliyat-e-Arsh (पृष्ठ 124)
- रचनाकार : Arsh Malsiyani
- प्रकाशन : Ali Imran Chaudhary
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